राष्ट्रीय

अदालत की सुनवाई को सोशल मीडिया पर गलत तरीके से साझा करने पर CJI बीआर गवई ने जताई चिंता

नई दिल्ली

भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने अदालत की सुनवाई को सोशल मीडिया पर गलत तरीके से साझा किए जाने पर चिंता व्यक्त की है. उन्होंने बताया कि भारतीय मीडिया अदालत के निर्णयों की रिपोर्टिंग में काफी सक्रिय है, लेकिन कई बार सुनवाई के दौरान कही गई बातें गलत तरीके से प्रस्तुत की जाती हैं. मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा कि जब से अदालत की सुनवाई वर्चुअल प्लेटफार्मों पर होने लगी है, तब से इस तरह की घटनाओं में वृद्धि हुई है. यह एक गंभीर मुद्दा है, क्योंकि वर्चुअल सुनवाई के कुछ हिस्सों को साझा करने के साथ-साथ गलत दावे भी किए जाते हैं.

उन्होंने कहा कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए नियमों की आवश्यकता है. चीफ जस्टिस गवई ने यह भी बताया कि भारत में इस प्रकार की समस्याओं का समाधान करने के लिए कोई ठोस व्यवस्था नहीं है. उनका मानना है कि इस समय नियम बनाने का यह सबसे उपयुक्त अवसर है. उन्होंने सोशल मीडिया पर इस तरह की सामग्री के प्रसार पर रोक लगाने की आवश्यकता पर जोर दिया. यह टिप्पणी उन्होंने ब्रिटेन में ‘मेंटेनिंग ज्युडिशियल लेगिटिमेसी ऐंड पब्लिक कॉन्फिडेंस’ विषय पर आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान की, जिसमें इंग्लैंड और वेल्स की चीफ जस्टिस लेडी सुइ कार भी उपस्थित थीं.

भारत की सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस विक्रम नाथ इस कार्यक्रम में उपस्थित थे, जहां सीनियर एडवोकेट गौरव बनर्जी ने मंच का संचालन किया. जस्टिस विक्रम नाथ ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हालांकि इसमें कुछ कमियां हो सकती हैं, फिर भी वे अदालती कार्यवाही के लाइव प्रसारण के समर्थन में हैं. उन्होंने यह भी बताया कि अदालती सुनवाई की लाइव स्ट्रीमिंग को रोकने के लिए उठाए गए तर्क, जैसे कि इसके बेजा इस्तेमाल का डर, बहुत ही कमजोर हैं. उनका मानना है कि इसका लाभ केवल न्यायाधीशों, वकीलों और वादियों या प्रतिवादियों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आम जनता के लिए भी फायदेमंद है, जो कानूनी प्रणाली से सीधे जुड़े नहीं हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय लिया था कि संवैधानिक महत्व के मामलों की सुनवाई का लाइव स्ट्रीमिंग किया जाएगा, जिससे इसका व्यापक लाभ हुआ है. हजारों लोग इन वीडियोज को देख रहे हैं. हालांकि, उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि हर मामले में ऐसा करना संभव नहीं है, क्योंकि यदि कानूनी प्रणाली को इस तरह से पूरी तरह से सार्वजनिक कर दिया गया, तो इससे गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं.

सीजेआइ ने सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद न्यायाधीशों द्वारा सरकारी पद स्वीकार करने या चुनाव लड़ने के लिए इस्तीफा देने पर गंभीर चिंता व्यक्त की. जस्टिस गवई ने कहा कि ऐसे कदम महत्वपूर्ण नैतिक प्रश्न उठाते हैं और सार्वजनिक निगरानी को आमंत्रित करते हैं.

उन्होंने बताया कि किसी न्यायाधीश का राजनीतिक पद के लिए चुनाव लड़ना न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल उठा सकता है. यह स्थिति हितों के टकराव या सरकार के पक्ष में खड़े होने के प्रयास के रूप में देखी जा सकती है. सेवानिवृत्ति के बाद की गतिविधियों का समय और स्वरूप न्यायपालिका की ईमानदारी पर जनता के विश्वास को कमजोर कर सकता है, जिससे यह धारणा बन सकती है कि न्यायिक निर्णय भविष्य की सरकारी नियुक्तियों या राजनीतिक भागीदारी से प्रभावित हो सकते हैं.

CJI ने कोलेजियम प्रणाली को भी उचित ठहराया
सीजेआइ बीआर गवई ने यूके में एक सम्मेलन के दौरान न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता पर जोर दिया. उन्होंने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम प्रणाली का समर्थन करते हुए बताया कि 1993 से पहले सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति का अंतिम निर्णय कार्यपालिका के हाथ में था. इस दौरान कार्यपालिका ने दो बार सीजेआइ की नियुक्ति में वरिष्ठ न्यायाधीशों को नजरअंदाज किया, जो कि स्थापित परंपरा के खिलाफ था.

1993 और 1998 के निर्णयों में, सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए संवैधानिक प्रक्रियाओं की व्याख्या की और कोलेजियम प्रणाली की स्थापना की. इस प्रणाली का मुख्य उद्देश्य कार्यपालिका के हस्तक्षेप को कम करना और न्यायपालिका की स्वायत्तता को बनाए रखना है. उन्होंने यह भी कहा कि हालांकि कोलेजियम प्रणाली की आलोचना की जा सकती है, लेकिन किसी भी समाधान को न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं लाया जाना चाहिए.

न्यायाधीशों को बाहरी दबाव से स्वतंत्र रहना चाहिए. भारत के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायपालिका में पारदर्शिता और जनता के विश्वास को बनाए रखने के लिए अपनाए गए उपायों का उल्लेख किया. इनमें न्यायाधीशों द्वारा स्वेच्छा से संपत्ति की जानकारी देना और यदि कोई न्यायाधीश किसी मामले में वकील के रूप में पहले से शामिल रहा है, तो उसे उस मामले की सुनवाई से अलग होने की परंपरा शामिल है.

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