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बिहार की राजनीति में बाहुबलियों की फिर हुई एंट्री, अपनी बीवियों को लड़ा रहे इलेक्शन

पटना

बिहार में राजनीति के अपराधीकरण का सिलसिला 80-90 के दशक में शुरू हुआ। लालू यादव घराने के राजकाज के दौरान ऐसे लोगों ने राजनीति में अपनी जगह भी बना ली। आनंद मोहन, पप्पू यादव, शहाबुद्दीन, अनंत सिंह, रामा सिंह, मुन्ना शुक्ला, सूरजभान सिंह, सुनील पांडेय जैसे अपने समय के अराजक तत्व समझे या माने जाने वाले लोगों का सक्रिय राजनीति में उदय हुआ। सक्रिय राजनीति इसलिए कि उससे पहले वे तत्कालीन नेताओं की सियासी जमीन तैयार करते थे। जब उन्हें लगा कि दूसरे की जमीन तैयार करने से तो बेहतर है कि अपनी जमीन पर राजनीति की खेती की जाए। फिर क्या था। एक साथ भरभरा कर सब राजनीति में आ गए। इनका नामकरण भी मीडिया ने कर दिया। सबके नाम के पहले बाहुबली लगाना अनिवार्य हो गया। संतों की ‘श्रीश्री’ की उपाधि की तरह ये ‘बाहुबली’ सांसद-विधायक कहे जाने लगे। राजनीतिक दलों के आकाओं ने भी उन्हें खुले दिल से गले लगा लिया। पुलिस से बचते रहने के लिए भागाभागी से राजनीति का रस तो गजब ही आस्वाद का लगा। इनकी बदकिस्मती रही कि बिहार में 2005 के आखिर में नीतीश कुमार की सरकार बन गई, जिसमें भाजपा भी साथ थी। सरकार ने अपराधियों पर अंकुश लगाने के लिए पुलिस को खुली छूट दे दी। नतीजा यह हुआ कि कुछ गैंग वार में मारे गए तो कई जेल पहुंच गए। कुछ ने बिहार को बाय ही बोल दिया। अब ये बाहुबली नए अवतार में हैं। ये खुद तो चुनाव लड़ नहीं सकते, इसलिए अपनी बीवियों को आगे कर दिया है या बीवियां खुद सामने आ गई हैं।

 

सिवान में शहाबुद्दीन की बेवा हिना शहाब

सिवान की पहचान भले ही देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की वजह से कभी रही हो, पर बाद में सिवान की पहचान शहाबुद्दीन बन गए। अपराध की दुनिया से सियासत में आए शहाबुद्दीन का अपराध जगत से नाता तब भी नहीं टूटा। सिवान में स्वर्ण व्यवसायी चंदा बाबू के तीन बेटों की जघन्य हत्या का आरोप शहाबुद्दीन पर लगा। दो बेटों को 2004 में तेजाब से नहला कर मार डाला गया था। तीसरे बेटे को भी 2015 में गोलियों से छलनी कर दिया गया। नीतीश सरकार की सख्ती से जेल गए शहाबुद्दीन ने सीखचों में रहते ही अंतिम सांस भी ली। उनके जेल में रहते ही पत्नी हिना शहाब ने आरजेडी के टिकट पर सिवान से किस्मत आजमाना शुरू किया। तीन कोशिशें बेकार चली गईं तो चौथी बार वे निर्दलीय बन कर चुनाव में उतरने वाली हैं।

शिवहर में आनंद मोहन की पत्नी लवली

शिवहर से आनंद मोहन 1996 और 1998 यानी दो बार सांसद चुने गए। हालांकि उनकी पत्नी लवली आनंद 1994 में ही वैशाली से उपचुनाव जीत कर सांसद बन चुकी थीं। आनंद मोहन का आपराधिक अतीत कैसा रहा है, वह इससे ही समझ सकते हैं कि कोशी के इलाके में पप्पू यादव से उनकी टकराहट अब भी लोग याद करते हैं। 1980 में उन्होंने समाजवादी क्रांति सेना बनाई। इस सेना का उद्देश्य पिछड़ों के उत्थान पर विराम लगाना था। आनंद मोहन उसके बाद से ही अपराधियों की सूची में शामिल हो गए। इतने कुख्यात कि गिरफ्तारी के लिए इनाम घोषित होने लगा। जेल से उनका रिश्ता गहराने लगा। जेल में रहते ही उन्होंने पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत भी गए। आनंद मोहन को पहली बार 1983 में तीन महीने कैद की सजा हुई थी। बाद में गोपालगंज के तत्कालीन डीएम की हत्या में उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई, जिसे उनकी अपील पर ऊपरी अदालत ने उम्रकैद में तब्दील कर दिया। तब से वे जेल में ही थे। उनकी रिहाई का रास्ता महागठबंधन सरकार का नेतृत्व करते नीतीश कुमार ने प्रशस्त किया। डीएम की पत्नी ने रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। आनंद अभी चुनाव नहीं लड़ सकते, इसलिए जेडीयू प्रत्याशी अपनी पत्नी लवली आनंद को शिवहर से जिताने में लगे हैं।

मुंगेर में अशोक महतो की ब्याहता अनीता

मुंगेर लोकसभा क्षेत्र से इस बार जेडीयू उम्मीदवार राजीव रंजीन उर्फ ललन सिंह के खिलाफ आरजेडी ने अनीता को उम्मीदवार बनाया है। अनीता की पिछले ही महीने खरमास में 56 साल के मोस्ट वांटेड अपराधी अशोक महतो से शादी हुई है। शादी स्वाभाविक नहीं है, बल्कि मजबूरी में अशोक महतो को करनी पड़ी है। अशोक महतो का आपराधिक रिकार्ड रहा है। पत्थर के अवैध उत्खनन में उसकी तूती बोलती थी। इसी क्रम में अशोक महतो गिरोह पर दर्जनों लोगों की हत्या के आरोप लगे। अशोक महतो पर कई मुकदमे दर्ज हैं। वह नवादा जेल ब्रेक कांड समेत अन्य कई आपराधिक मामलों में शामिल रहा है। लगातार 17 साल तक जेल में रह कर अभी बाहर है। अचानक उसके मन में राजनीति में भी अपनी जगह बनाने की बात सूझी। वह खुद चुनाव नहीं लड़ सकता था तो लालू यादव ने उसे शादी करने की सलाह दी। आनन-फानन में अशोक ने अनीता से शादी रचाई और आरजेडी ने अनीता को मुंगेर से अपना प्रत्याशी बना दिया है। अशोक का आपराधिक दुनिया में प्रवेश 90 के दशक में हुआ। नवादा के वारिसलीगंज और शेखुपरा के ससवहना में उन दिनों दो बड़े अपराधियों के गैंग बने थे। एक का नेतृत्व अखिलेश सिंह और दूसरे का अशोक महतो करते थे। वर्चस्व की जंग दोनों गिरोहों में होती रही। वर्ष 2002 में अशोक महतो गैंग ने अखिलेश सिंह के गैंग पर हमला किया। इसमें दर्जन भर लोगों की हत्या हुई थी। नौ जुलाई 2006 को झारखंड के देवघर से अशोक महतो पकड़ा गया। उस पर नवादा जेल ब्रेक कांड, शेखपुरा के मनीपुर में नरसंहार, विधायक पर बम फेंकने समेत कई केस दर्ज हुए थे। भागलपुर जेल में 17 साल रहने के बाद 2023 में अशोक जेल से बाहर आया।

पूर्णिया में खुद ताल ठोक रहे पप्पू यादव

पूर्णिया से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव का भी लंबा आपराधिक रिकार्ड रहा है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त पप्पू ने जो हलफनामा दिया था, उसमें उनके खिलाफ 31 आपराधिक मामलों का जिक्र था। उन्होंने यह भी बताया था कि इनमें से नौ मामलों में तो चार्जशीट भी दाखिल हो चुकी है। हत्या के मामले में उन्हें सजा भी मिली, लेकिन बाद में हाईकोर्ट ने उन्हें सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था। सीपीएम विधायक अजीत सरकार की हत्या के बाद चर्चा में आए पप्पू यादव और बाहुबली आनंद मोहन के बीच खूनी टकराव भी 90 के दशक में खूब हुए। इस बार लोकसभा चुनाव में पप्पू पूर्णिया से कांग्रेस के उम्मीदवार बनने वाले थे। इसके लिए उन्होंने अपनी जन अधिकार पार्टी का कांग्रेस में विलय भी कर दिया। पर, लालू प्रसाद ने पूर्णिया सीट आरजेडी के कोटे में रख ली। पूर्णिया में बीमा भारती को लालू ने उम्मीदवार बना दिया।

वैशाली से विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला

बिहार के लिए विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला का नाम जाना पहचाना है। पहली बार उनका नाम तब चर्चा में आया, जब गोपालगंज के तत्कालीन जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या का आरोप उन पर लगा। मुन्ना शुक्ला के भाई छोटन शुक्ला ठेकेदार थे और ठेकेदारी की रंजिश में ही उनकी हत्या हुई थी। हत्या का आरोप राबड़ी देवी की सरकार में मंत्री रहे बृजबिहारी प्रसाद पर लगा। प्रशासन की मनाही के बावजूद मुन्ना ने अपने भाई की शवयात्रा निकाली। शवयात्रा में शामिल लोग उत्तेजित थे। उसी दौरान गोपालगंज के तत्कालीन डीएम की गाड़ी उधर से गुजर रही थी। भीड़ ने गाड़ी पर हमला कर दिया। कृष्णैया की मौत हो गई। मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई। इस मामले में मुन्ना शुक्ला को लंबा समय जेल में बिताना पड़ा। इधर 1998 में बृजबिहारी प्रसाद की हत्या भी हो गई। इसका आरोप मुन्ना शुक्ला, सूरजभान सिंह, राजन तिवारी समेत आठ लोगों पर लगा। जेल से ही मुन्ना शुक्ला ने पहली बार 1999 में निर्दलीय विधानसभा का चुनाव लड़ा। पर, जीत नहीं सके। दोबारा 2002 में जेल से ही चुनाव लड़ कर मुन्ना शुक्ला विधायक बन गए। फिर लोक जनशक्ति पार्टी और जेडीयू के टिकट पर भी विधायक चुने गए। बृजबिहारी प्रसाद की हत्या में निचली अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई, लेकिन ऊपरी अदालत ने सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया।

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