कविता : पुण्य की जीत - डॉ. अशोक कुमार वर्मा

नई दिल्ली । Action India News
सुना है, पाप बाजारों में बिना दामों के बिक रहा है।
लेने वाले ग्राहकों का तांता बहुत बड़ा दिख रहा है।
क्योंकि पाप बिना दाम दिए जो मिल रहा है।
आज पुण्य की पाप से हुई घमासान लड़ाई।
इसीलिए तो आज घर घर में लड़ रहे हैं भाई भाई।
पाप कहता है पुण्य तुझे मैं रहने नहीं दुंगा
घर तो छोड़ तुझे मौहल्ले से भी बाहर का रास्ता दिखाऊंगा।
पुण्य कहता है तू अवश्य मुझसे ताकतवर है।
लेकिन तेरा मोल तो मुझसे बहुत कमतर है।
मेरे ग्राहक माना बहुत ही कम हैं।
लेकिन जो हैं उनमें इंसानियत का भरपूर दम है।
पाप कहता है, पुण्य, तुझे लोग पसंद नहीं करते।
इसीलिए तो दुकानदार तुम्हें दुकान में नहीं रखते।
पुण्य ने कहा मैं दुकानों में नहीं सज्जन और महापुरुषों के ह्रदय में रहता हूं
इसीलिए तो मैं कंगालों की बस्ती में नहीं जाता हूं।
पाप ने हंसकर कहा मेरे ग्राहक बहुत ही मजे में रहते हैं।
हर रोज नए नए पकवान और व्यंजन खाते हैं।
पुण्य बोला मेरे ग्राहक सादा जीवन बिताते हैं और ईश्वर के गुण गाते हैं।
भगवान के सहारे जीते हैं और किसी का दिल नहीं दुखाते हैं।
पाप को यह बात सुन बड़ी लज्जा आई।
पुण्य से हार आज करारी मात खाई।
क्योकि पुण्य की शक्ति पाप पर पड़ गई भारी।
पाप ने कहा जहाँ तुम होंगे वहां मैं नहीं जाऊंगा।
इसीलिए आज से अपना नया घर बसाऊंगा।
अधर्मी और अत्याचारी को अपनाउंगा।
सत्संगी और सज्जन पुरुष को नहीं सताऊंगा।
तभी से पाप बाज़ारों में बिना दाम के बिकता है।
कोई अभागा ही उसकी खरीद करता है।